Saturday, October 4, 2008

इस्लाम का वैचारिक द्वंद

धर्म (religion) समाज पर किस हद तक भारी हो सकता है ?......मन रिवाजों का गुलाम होता है रिवाज़ यानि दोहराव ,जो कल हुआ था वह आज भी चाहिए वैसे ही चाहिए ,क्योंकि नए में भय है उसमें एक जानलेवा अपरिचितता है और सन्थागत धर्म उस अपरिचितता से बचाते है नवीनता को रोकते हैं यह अलग बात है कि कहीं- कहीं ये जड़ता और आचार- व्यवहार के बंधन न्यून और शिथिल होते हैं और कहीं बहुत अधिक और प्रबल

जिस
दिन से मोहम्मद साहब ने तलवार उठाई थी उसी दिन से उस समय की बर्बर कबीलाई संस्कृति अमर हो गई वक्त तो बहुत बुरा था लोग ज़ाहिल थे ,खूंखार थे मोहम्मद साहब की शिक्षाओं ने कुछ तो राहत दी ही होगी अराजकता में कमी आई होगी लेकिन एक गड़बड़ हो गई कबीले के कबीले काल के मुंह में समा जाते और शायद वह बर्बरता समय की धारा में विलीन हो चुकी होती लेकिन लोकाचार जब मजहब का चोला पहन लेते हैं तब दीर्घ आयु पाते हैंकुछ ऐसा ही इस्लाम के साथ हुआ एक अमर गतिहीनता का वक्त से 'जेहाद' जारी है

आज
इस्लाम के पैरोकार इसके बौद्धिक , सैद्धांतिक आधार को बचाने का प्रयास कर रहे हैं वह भी आक्रामक ढंग से 'तुलनात्मक धर्म दर्शन' का भी सहारा लिया जा रहा है(देखें Q tv पर ज़ाकिर नाइक को) मेरी समझ में इसे धार्मिक दर्शन(religious philosophy कि philosophy of religion) कहना ज्यादा सही होगा ग़लत तर्कों से कैसे बौद्धिक छल किया जाता है इसका बहुत सटीक उदाहरण है
लेकिन आतंकवाद का बदलता चेहरा एक भीषण चेतावनी है अब आतंकी एक पढ़ा लिखा शख्स होता है,कभी-कभी ग्रेजुएट भी उसकी एक विचारधारा है चाहे थोपी गई या manipulate की गईऔर हमारे 'बौद्धिक' सेकुलरिज्म के मुगालते में हैं सच्चा सेकुलर तो वो है जो मात्र सत्य की बात करता है लेकिन सत्य इनकी प्राथमिकता नहीं हैकिसी भी तरह की मजहबी कट्टरता का विरोध करना भी सेकुलरिज्म है
ये
भीरु हैं जो लीक से हटकर नहीं सोच सकते है , या शायद बोलने का साहस नहीं कर पाते और दूसरी तरफ़ वे लोग हैं जो मुसलमानों के विरुद्ध विष वमन करते रहते हैंमुसलमानो का दमन करने से सत्य की लाज नहीं रह सकती सीधी बात करो, जहाँ खराबी है वहां चोट करोकट्टरता के तत्व किसी भी धर्म या दर्शन का सबसे विषाक्त हिस्सा होते हैंइस्लाम हो या कोई और सम्रदाय तर्क का दामन छोड़ना ठीक नहीं मजहब या विश्वास के नाम पर भी नहीं सत्य अनावृत सामने खड़ा हो तो विश्वास करने या करने का सवाल ही कहाँ ?