Saturday, August 30, 2008

हमें कौन कैंसर दे रहा है?

खाद्य सामग्री में मिलावट कितनी खतरनाक हो सकती है ये बात शायद सभी जानते हैं लेकिन कोई कुछ करता क्यों नहीं ?क्या आपने कभी फलों को गौर से देखा है ? आजकल पपीता ज्यादा मीठा होने लगा है और उसमें बीज भी नहीं दिखता ?तरबूज ज्यादा लाल रहता है,केले वक्त से पहले पक गए लगते हैं .ये सब क्या है ?इन सब में जहर डाला गया है । ये बढ़ा चढ़कर कही गई बात नहीं है । जो आपको कैंसर दे वो ज़हर ही तो है न । जिन रसायनों का इस्तेमाल मिलावट में किया जाता है वाकई इस हद तक घातक होते हैं।फलों को कृत्रिम रूप से पकाने के लिए कैल्शियम कार्बाइड का इस्तेमाल किया जाता है ,जिसमें कि फास्फोरस और आर्सेनिक की मात्रा पाई जाती है ।
कैल्शियम कार्बाइड पानी में घुलने पर ऐसिटिलीन गैस बनाता है जो फलों को जल्दी पकाने में मदद करता है ,लेकिन यही ऐसिटिलीन दिमाग में ऑक्सीजन की आपूर्ति कम करके नर्वस सिस्टम को प्रभावित करती है । बताने की जरूरत नहीं कि इस तरह फल पकाने पर कई देशों में प्रतिबन्ध है । लेकिन हमारे यहाँ यह खूब होता है ।
इस तरह के प्रतिबन्ध किसी को रोक नहीं पाते जब हमें ही कोई फ़िक्र नहीं ।
रंगों पर आपने गौर किया होगा। मिठाइयों या केक में जो हरा , नारंगी या लाल रंग होता है उनमें ताम्बे और आर्सेनिक यौगिक मिले होते हैं ।
हल्दी में रंगीन चॉक या ईंटो का पाउडर ,धनिया में लकड़ी का बुरादा, घोडे की लीद वगैरह मिलाये जाते हैं । और भी बहुत कुछ हैं मिलाने के लिए और मिलाये जाते हैं लेकिन सवाल ये उठता है की कोई विरोध क्यों नहीं करता ।
मसाले तो हम ब्रांडेड खरीद लेते हैं जो एक बेहतर चुनाव है लेकिन फल सब्जियों का क्या करें ?क्या आपने परवल पर हरा रंग लगा नहीं देखा ,मैं तो मना कर देता हूँ और सब्जी वाले को समझाइश भी दे देता हूँ ,लेकिन वो भी क्या करे ,उसे ऐसा ही मिला है और वह बेच रहा है । लेकिन फर्क पड़ता है , अगर हम खरीदना बंद कर दें तो ये सब कम हो सकता है । हर जगह जाँच नहीं की जा सकती लेकिन जहाँ साफ साफ दिख रहा है वहां अपनी बात रखें ,रंगी हुए चीजें न लें हमेशा चॉकलेट या सफ़ेद केक खरीदे ,और विक्रेता को बताएं की आप क्यों ऐसा कर रहे हैं।
मुझे दूध पीने वाले बच्चों पर तरस आता है,वे नहीं जानते की उनका दूध कैसे 'तैयार' किया जाता है। अगर आप कभी सहस कर पायें तो एक बार दूध का लैब परीक्षण जरूर करवाएं ।ज्यादा सम्भावना यही है की दूध मिलावटी होगा । और दूध में पानी मिलाना अब कोई मिलावट नही कहलाती है । शैंपू,साबुन और यूरिया मिलाया जाता है ।
यकीन मानिये हम इसे रोक सकते हैं ,सजग रहकर ,आवाज़ उठाकर हमें इसका प्रतिरोध करना चाहिए ।

Monday, August 25, 2008

होम्योपैथी काम करती है

कुछ समय से मुझे स्वास्थ्य समस्याओं ने परेशान कर रखा था , कभी कभी मामूली नज़र आने वाली समस्याएं बहुत कष्ट देती हैं । मुझे allergy के कारण साँस लेने में परेशानी होती थी । लगता था जैसे कभी न जाने वाला जुकाम हो गया हो , इधर -उधर इलाज कराने के बाद होम्योपैथी के बारे में सोचा ,और नतीजा बहुत अच्छा रहा ।मुझे उम्मीद नहीं थी की इतना तेज़ और असरदार साबित होगा ।होम्योपैथी में कुछ रोगों का बहुत ही सटीक और निर्दोष इलाज है ,जो कि असर और दुष्प्रभाव दोनों के मामलों में allopathy से बेहतर है ।piles ,allergy,asthma ,lucoderma जैसी बीमारियों में यह बेहद कारगर है . रह -रहकर होने वाले संक्रमण कमजोर immunity के कारण होते हैं , होम्योपैथी सीधे immunity को दुरुस्त करती है।पूरी दुनिया में होम्योपैथी को अब गंभीरता से लिया जाने लगा है खासतौर से भारत में इसकी सम्मानजनक स्थिति है , लेकिन homeopath ही इसके दुश्मन बने हुए हैं ,एक कारण तो यह है कि इन में से कई practitioner qualified नहीं हैं या फ़िर अपने पेशे के साथ न्याय करने के काबिल नहीं हैं । प्रिस्क्रिप्शन न देना दूसरा बड़ा कारण है । इससे विश्वसनीयता तो कम होती ही है साथ ही मरीज़ के पास कोई रिकॉर्ड नहीं होता ।
लेकिन फ़िर भी मैं होम्योपैथी की वकालत करता हूँ ,खासतौर से उन बीमारियों के मामलों में जिनका होम्योपैथी में कारगर इलाज है। आप भी एक बार जरूर आजमाकर देखें ।

Monday, August 18, 2008

नायकत्व और युवा

नायकत्व की परिभाषा बदल रही है ,और युवाओं का चरित्र भी । बदलती हुई आर्थिक तस्वीर बहुत कुछ बदल रही है । युवा आइन्स्टीन के 'सापेक्षता के सिद्धांत' की लाज रख रहे हैं । समय के सापेक्ष चल रहे हैं।क्या हम सब क्लोन नहीं बनते जा रहे हैं ,सब के सब एक जैसे खोखले ,व्यक्तित्व शून्य इन्सान, जिन्हें समाज ने गढा है ।समकालीन फिल्मों के नायक ग्रे शेड के साथ आते हैं । खलनायक और नायक का भेद मिट रहा है । आज का नायक कितना स्वार्थी हो गया है,और मजेदार बात ये कि बावजूद इसके वो नायक है । वास्तव में नायक कहना सही नहीं होगा ,उसे अब केन्द्रीय पात्र ही कहना चाहिए । क्योंकि नायकों वाली संवेदना तो कबकी जा चुकी है। हाँ कुछ फिल्में इस तथ्य को झुठलाती हुई यदा कदा आ जाती हैं , जो हवा के ठंडे झोंके की तरह होती हैं ,लेकिन उनकी तादात ज्यादा नहीं है । ८० के दशक की फिल्मों से तुलना तो नहीं कर सकते क्योंकि तब से अब तक काफी कुछ बदल चुका है । परिवर्तन बहुत ऐतिहासिक हैं । अब 'एंग्री यंग मैन 'जैसे नायक के लिए कोई जगह नहीं है। आज के नायक के लिए पैसा ही सब कुछ हो गया है ।मुद्दे तो और भी हैं समाज में ,फ़िर आज के चिरकुट नायक की आंखों पर परदा क्यों पड़ा है?ये परदा हमारे नेताओं ने खूब डाला है लेकिन अब फ़िल्म वाले भी हमें मुगालते में रखते हैं ।इतनी अच्छी पाचन शक्ति सिर्फ़ भारत के लोगों में ही हो सकती है । घटिया चीजों को हज़म करने की लम्बी आदत हो चुकी है। अब हम कुछ भी पचा सकते हैं। फ़िर ये तो महज फूहड़ सिनेमा है ।
और आज के युवा को तो बस दो ही बातों की फ़िक्र है अपना करियर या 'सेक्स पार्टनर ' की तलाश । दोनों ही बातें अपने आप में बुरी नहीं हैं । लेकिन ऐसा क्यों है कि दायरा बहुत छोटा हो गया है । ऐसे माहौल में एक तत्व की कमी हो जाती है -साहस की । साहस कैसे आएगा जब नैतिक बल ही न रहेगा । और नैतिकता की परवाह तो तब होगी जब व्यक्ति स्वयं से परे उठे। इस आर्थिक उत्साह में ही मत खो जाना तुम । उत्सव मनाओ ,लेकिन याद रखो जीवन के ऋण तो तुम्हें चुकाने ही पड़ेंगे । ऋण महसूस ही तब होगा जब तुम अपना आत्मसम्मान वापस पाओगे ।